इस साल के magazine बोर्ड से मुझे खास नाराज़गी है| आज FEs से पिछले कुछ सालों की magazines लेने के लिए क्या गया की शिकायतों का अम्बार फूट पड़ा| हिंदी के प्रति जितनी लालसा पढने वाले रखते हैं, उससे कहीं ज्यादा बेरुखी बोर्ड उसे छपवाने में रखता है, और नाम देता है 'बेबसी' का| सिर्फ कुछ शब्दों का हेर-फेर है पर असल बात ये है की जो इंसान स्वयं जिस क्षेत्र में पारंगत नहीं है, उसे उसकी एहमियत का एहसास नहीं होता| मेरे juniors ने आज मुझसे कह ही डाला कि 'सर, जब हम हिंदी वालों की ज़रूरत और इज्ज़त ही नहीं है तो हम हैं क्यों? क्यों कर हमें बोर्ड का सदस्य बनाया?' और मेरे पास सिर्फ इतना जवाब था कि यही सबसे बड़ी बात है की हम उस के सदस्य हैं जिसकी मांग ज्यादा है पर योगदान देने वाले कम| इसे 'profit of being from a minoriti group ' कहते हैं|
और ये सच भी है| शुक्र है कि यहाँ बोर्ड के ज़्यादातर लोग इंग्लिश बोलते हैं| अगर ये लोग हिंदी ज्यादा बोलते तो मैं english section को join करता| जहाँ अभाव है, वहां योगदान दीजिये| इससे संतुलन कायम रहता है| जहाँ सारीदुनिया जा रही है, उसी का समर्थन करने में क्या बडाई? और क्या ही उसमें फायदा है? भेड़-चाल है जो सारी दुनिया कर रही है| FEs को तो समझा कर भेज दिया| पर टीस दिल में उठी ही थी| जब पत्रिका का प्रारूप इस साल बदला गया, मैंने तभी विरोध किया था| मसला साफ़ था| इस नए प्रारूप से हमारे विचारों पर बंधन लगाया जा रहा था| हर अनुच्छेद, हर निबंध, हर कविता उन्ही के अनुसार लिखनी होगी| शीर्षक सीमित हो गए और विचारों में गतिशीलता का अभाव हो गया| वो उड़ान, वो गतिमान मन कि बातें अब कहाँ छप पाएंगी? पर इंग्लिश? "Topic no bar " का नारा| जहाँ चाहा फिट कर दिया| ये भाषावाद नहीं तो और क्या है? न तो मैं ये कहता हूँ कि हिंदी को अधिक प्राथमिकता दी जाये, न ही ये आशा रखता हूँ कि अंग्रेजी कि महिमा, या उसका महत्त्व घटे| परन्तु कम से कम सामान तो हो| तनिक भी अंग्रेजी के सम्मान को यदि ठेस पहुचेगी तो मैं उसके लिए भी उतना ही पीड़ादायक दर्द का अनुभव करूँगा जो मैं आज हिंदी के लिए कर रहा हूँ| पत्रिका के लिए मैंने जो अनुच्छेद दिया है, उसे घुमा फिर कर इस लायक तो बना दिया कि खुद बोर्ड को उस पर आपत्ति न हो, पर उस निबंध के लिए ज्वाला का जो अंश मेरे हृदय में फूटा था, वो बोर्ड कि वजह से ही था| पर अब प्रत्यक्ष रूप से तो मैं ये बात कह ही नहीं सकता था| परोक्ष रूप से ही कहनी चाही| अन्यथा गोया कहीं मेरा ही निबंध न उदा दें| बोर्ड के हिंदी विभाग का मुख्य हूँ तो कुछ अपने आप में अभिमान अनुभव करता हूँ कि कम से कम मेरा तो लेख छपेगा ही| पर क्या कुछ भी लिख दूंगा| खुले रूप से तो नहीं उड़ा सकता न अब| ऐसे मारूंगा तो मुझे शायद बोर्ड से ही निकाल दें| विभाग का पद तो बात ही क्या| पर मरता क्या न करता? दिल में दर्द तो था ही| इसलिए जब सीधी ऊँगली से घी न निकला तो अप्रत्यक्ष रूप से ही प्रयास किया| शब्दों का चयन बहुत एहम होता है ऐसे समय में| खैर वो बात तो अब जाती रही|
और ये सच भी है| शुक्र है कि यहाँ बोर्ड के ज़्यादातर लोग इंग्लिश बोलते हैं| अगर ये लोग हिंदी ज्यादा बोलते तो मैं english section को join करता| जहाँ अभाव है, वहां योगदान दीजिये| इससे संतुलन कायम रहता है| जहाँ सारीदुनिया जा रही है, उसी का समर्थन करने में क्या बडाई? और क्या ही उसमें फायदा है? भेड़-चाल है जो सारी दुनिया कर रही है| FEs को तो समझा कर भेज दिया| पर टीस दिल में उठी ही थी| जब पत्रिका का प्रारूप इस साल बदला गया, मैंने तभी विरोध किया था| मसला साफ़ था| इस नए प्रारूप से हमारे विचारों पर बंधन लगाया जा रहा था| हर अनुच्छेद, हर निबंध, हर कविता उन्ही के अनुसार लिखनी होगी| शीर्षक सीमित हो गए और विचारों में गतिशीलता का अभाव हो गया| वो उड़ान, वो गतिमान मन कि बातें अब कहाँ छप पाएंगी? पर इंग्लिश? "Topic no bar " का नारा| जहाँ चाहा फिट कर दिया| ये भाषावाद नहीं तो और क्या है? न तो मैं ये कहता हूँ कि हिंदी को अधिक प्राथमिकता दी जाये, न ही ये आशा रखता हूँ कि अंग्रेजी कि महिमा, या उसका महत्त्व घटे| परन्तु कम से कम सामान तो हो| तनिक भी अंग्रेजी के सम्मान को यदि ठेस पहुचेगी तो मैं उसके लिए भी उतना ही पीड़ादायक दर्द का अनुभव करूँगा जो मैं आज हिंदी के लिए कर रहा हूँ| पत्रिका के लिए मैंने जो अनुच्छेद दिया है, उसे घुमा फिर कर इस लायक तो बना दिया कि खुद बोर्ड को उस पर आपत्ति न हो, पर उस निबंध के लिए ज्वाला का जो अंश मेरे हृदय में फूटा था, वो बोर्ड कि वजह से ही था| पर अब प्रत्यक्ष रूप से तो मैं ये बात कह ही नहीं सकता था| परोक्ष रूप से ही कहनी चाही| अन्यथा गोया कहीं मेरा ही निबंध न उदा दें| बोर्ड के हिंदी विभाग का मुख्य हूँ तो कुछ अपने आप में अभिमान अनुभव करता हूँ कि कम से कम मेरा तो लेख छपेगा ही| पर क्या कुछ भी लिख दूंगा| खुले रूप से तो नहीं उड़ा सकता न अब| ऐसे मारूंगा तो मुझे शायद बोर्ड से ही निकाल दें| विभाग का पद तो बात ही क्या| पर मरता क्या न करता? दिल में दर्द तो था ही| इसलिए जब सीधी ऊँगली से घी न निकला तो अप्रत्यक्ष रूप से ही प्रयास किया| शब्दों का चयन बहुत एहम होता है ऐसे समय में| खैर वो बात तो अब जाती रही|
मैं क्यों रोता हूँ बार बार इस मसले को लेकर? क्या मैं अंग्रेजी का कट्टर विरोधी हूँ? या मैं हिंदी का प्रबल समर्थक हूँ? दरअसल मेरे लिए ये दोनों ही मात्र भाषा हैं| इनसे मुझे क्या शिकवा हो सकता है भला? शिकवा है तो इन्हें बोलने वालों से| उनसे जो भारतीय होते हुए भी इन्हें सामान अधिकार नहीं देते| सार्वजनिक तौर पर बेशक हिंदी को ही संविधान ने ऊपर कि श्रेणी में रख दिया हो, पर उनका क्या जो इस मातृभाषा को अपनाने से इनकार करते हैं| उनपर इसे थोंप तो नहीं सकते| मानसिक पटल पर जो पर्दा पड़ा है, उसे हटाना ही आवश्यक है| पाश्चात्य को अपनाओ| पर खुद को क्यों भुला रहे हो? आज भी अगर मैं कुर्ता पहन कर निकलता हूँ तो दस लोग ये सलाह देने वाले मिल जायेंगे कि टी-शर्ट पहना करूँ| सभ्यता को भूल ही गए लोग| और कुछ तो ये इलज़ाम देने वाले भी मिल जाते हैं कि स्वयं को अलग दिखाने के लिए मैं ऐसा करता हूँ| मानसिकता पर ध्यान कोई नहीं देता| 'Music ' को लक्ष्य रख कर पिछले साल जब नोटिस-बोर्ड निकाला गया था तब जितने भी प्रतिभाशाली लोगों कि उस भीड़ में बोलने वाले थे, Metallica , Megadeth आदि से आगे बढ़ने को तैयार न थे| किसी को कुछ और पता हो तो आगे बढें| पाश्चात्य ने उन आधुनिक कहे जाने वाले मस्तिष्कों को अपने संगीत को भूलने पर मजबूर कर दिया था| एक कोने से मेरी भी आवाज़ निकली "क्यों न हम भारतीय संगीत के लिए भी कुछ स्थान दें"? मुझे समर्थन मिला| और बाद में बोर्ड पर मिले Indian -Pop music bands and groups | तानसेन, लता, रफ़ी और किशोर का नाम तक नहीं था| सूफी संत काव्यधारा के गायक भीड़ में खो गए थे क्या? हमारे पूर्वज जिन उन्नत शहरों में रहते थे, उन वीरानों को जीवनव्यापी बनाते थे या तो प्रातः काल कि चिड़िया कि चहचाहट या फिर रामायण, कबीर, रहीम के दोहे गाने वाले इकतारा लिए वो भिक्षुक जो रक्त थे भारतीय संस्कृति के| विचारों कि अभिव्यक्ति को ज़रिया मिलना चाहिए पर खुद को भुला कर? किसी कीमत पर नहीं| जिसकी कमी है, मैं उसे बढ़ावा देता हूँ| जो abundant पड़ा है, उसको समर्थन देकर दुर्बल को त्याग करना मेरी फितरत नहीं है| देश के युवा वर्ग, मेरा आह्वान है| मत भूलो स्वयं को, स्वयं के गौरवशाली इतिहास को और अपनी संस्कृति को|
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