मनुष्य के जीवन में अनेकों घटनाएं आघात बन कर आती हैं| सबसे बड़ा आघात होता है अपनों के ही द्वारा कटु शब्दों का प्रहार व स्वयं केही मित्रों द्वारा आलोचना| परन्तु देखा जाए तो एक मायने में वही मनुष्य के लिए सबसे बड़ी प्रेरणा का कार्य कर सकती है|
पागल को कोई पागल कहेगा तो उसे क्रोध आएगा| वो स्वयं में झाँक कर नहीं देखेगा कि क्या वाकई उसके कर्म एक सामान्य जीवन जीने के अनुरूप है या नहीं| उसमें शांत चित्त होकर इस प्रकार की बातें सोचने की क्षमता ही नहीं है| यदि होती तो वो पागल ही क्यों कहलाता| और
पागल आदमी अपनी इस अक्षमता को स्वीकार भी नहीं करता|
दूसरी ओर अत्यधिक मनः चिंतन करने वाले समझदार मनुष्य को कोई पागल कहे व उसे भी क्रोध आये तो उसमें और पागल में अंतर ही क्या रह जाएगा? सज्जन पुरुष स्वयं को मानसिक रोगी कहलाये जाने पर न तो क्रोधित होता है, और न ही निष्क्रिय हो कर शांत बैठता है| वह आत्ममंथन करता है| स्वयं का आंकलन पुनः करता है| और यदि कोई बात उन्हें स्वयं के बारे में अक्षमता प्रकट करती हुई नज़र आती है तो वे उसे स्वीकार करते हैं|
सामान्य पुरुष को तत्कालीन क्रोध आना स्वाभाविक है परन्तु वह शांत कोने के पश्चात कदापि आत्ममंथन अवश्य करता है| अपनी गलती अथवा प्राकृतिक कमी को स्वीकार करना चाहता है या नहीं, इसका निर्णय इस बात पर निर्भर करता है कि उसने आत्ममंथन स्वयं को परख कर स्वयं में सुधार लाने के उद्देश्य से किया है अथवा अपनी अपनी ही नज़रों में खुद ही को सही-वा-समर्थ सिद्ध करने के लिए|अंततः, दूसरों के सामने कुछ प्रमाणित करने का कुछ मोल भी नहीं है| उठाना तो अपनी ही नज़रों में है|
आलोचनाएँ सहने के विषय में उक्त तीनों प्रकार के लोगों की प्रतिक्रिया अवश्य ही भिन्न-भिन्न है| परन्तु इस भीनाता में भी कदाचित एकगुण सामान्य है| वह है मनुष्य की प्रकृति निर्धारित करने वाला सामाजिक बल| मनुष्य के आस-पास का वातावरण व उससे सम्बंधित लोग ही इस बात के लिए उत्तरदायी होते हैं कि उसकी प्रवृत्ति कौन सी दिशा में बहेगी|
ऐसे में अपने ही शुभचिंतकों द्वारा आलोचना किये जाने पर विचलित होना मूर्खता है| उस आलोचना का उद्देश्य यदि आपकी प्रगति अथवा उन्नति है तो बुरा मानना स्वयं की ऊर्जा को व्यर्थ ही नष्ट करने के समां है| परन्तु यदि उसका उद्देश्य आपको नीचा दिखाना है तो वे आपके शुभचिंतक हैं ही नहीं| ऐसे में चिंता करना मूर्खता है| वरन स्वयं को अधिक दृढ़ व इतना सक्षम बनाने का प्रयास कीजिए कि कोई आपकी आलोचना करने ही ना पाए|
पागल को कोई पागल कहेगा तो उसे क्रोध आएगा| वो स्वयं में झाँक कर नहीं देखेगा कि क्या वाकई उसके कर्म एक सामान्य जीवन जीने के अनुरूप है या नहीं| उसमें शांत चित्त होकर इस प्रकार की बातें सोचने की क्षमता ही नहीं है| यदि होती तो वो पागल ही क्यों कहलाता| और
पागल आदमी अपनी इस अक्षमता को स्वीकार भी नहीं करता|
दूसरी ओर अत्यधिक मनः चिंतन करने वाले समझदार मनुष्य को कोई पागल कहे व उसे भी क्रोध आये तो उसमें और पागल में अंतर ही क्या रह जाएगा? सज्जन पुरुष स्वयं को मानसिक रोगी कहलाये जाने पर न तो क्रोधित होता है, और न ही निष्क्रिय हो कर शांत बैठता है| वह आत्ममंथन करता है| स्वयं का आंकलन पुनः करता है| और यदि कोई बात उन्हें स्वयं के बारे में अक्षमता प्रकट करती हुई नज़र आती है तो वे उसे स्वीकार करते हैं|
सामान्य पुरुष को तत्कालीन क्रोध आना स्वाभाविक है परन्तु वह शांत कोने के पश्चात कदापि आत्ममंथन अवश्य करता है| अपनी गलती अथवा प्राकृतिक कमी को स्वीकार करना चाहता है या नहीं, इसका निर्णय इस बात पर निर्भर करता है कि उसने आत्ममंथन स्वयं को परख कर स्वयं में सुधार लाने के उद्देश्य से किया है अथवा अपनी अपनी ही नज़रों में खुद ही को सही-वा-समर्थ सिद्ध करने के लिए|अंततः, दूसरों के सामने कुछ प्रमाणित करने का कुछ मोल भी नहीं है| उठाना तो अपनी ही नज़रों में है|
आलोचनाएँ सहने के विषय में उक्त तीनों प्रकार के लोगों की प्रतिक्रिया अवश्य ही भिन्न-भिन्न है| परन्तु इस भीनाता में भी कदाचित एकगुण सामान्य है| वह है मनुष्य की प्रकृति निर्धारित करने वाला सामाजिक बल| मनुष्य के आस-पास का वातावरण व उससे सम्बंधित लोग ही इस बात के लिए उत्तरदायी होते हैं कि उसकी प्रवृत्ति कौन सी दिशा में बहेगी|
ऐसे में अपने ही शुभचिंतकों द्वारा आलोचना किये जाने पर विचलित होना मूर्खता है| उस आलोचना का उद्देश्य यदि आपकी प्रगति अथवा उन्नति है तो बुरा मानना स्वयं की ऊर्जा को व्यर्थ ही नष्ट करने के समां है| परन्तु यदि उसका उद्देश्य आपको नीचा दिखाना है तो वे आपके शुभचिंतक हैं ही नहीं| ऐसे में चिंता करना मूर्खता है| वरन स्वयं को अधिक दृढ़ व इतना सक्षम बनाने का प्रयास कीजिए कि कोई आपकी आलोचना करने ही ना पाए|
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