Thursday, March 25, 2010

दर्द है, पर करूँ क्या?

इस साल के magazine बोर्ड से मुझे खास नाराज़गी है| आज FEs से पिछले कुछ सालों की magazines लेने के लिए क्या गया की शिकायतों का अम्बार फूट पड़ा| हिंदी के प्रति जितनी लालसा पढने वाले रखते हैं, उससे कहीं ज्यादा बेरुखी बोर्ड उसे छपवाने में रखता है, और नाम देता है 'बेबसी' का| सिर्फ कुछ शब्दों का हेर-फेर है पर असल बात ये है की जो इंसान स्वयं जिस क्षेत्र में पारंगत नहीं है, उसे उसकी एहमियत का एहसास नहीं होता| मेरे juniors ने आज मुझसे कह ही डाला कि 'सर, जब हम हिंदी वालों की ज़रूरत और इज्ज़त ही नहीं है तो हम हैं क्यों? क्यों कर हमें बोर्ड का सदस्य बनाया?' और मेरे पास सिर्फ इतना जवाब था कि यही सबसे बड़ी बात है की हम उस के सदस्य हैं जिसकी मांग ज्यादा है पर योगदान देने वाले कम| इसे 'profit of being from a minoriti group ' कहते हैं|

भाषा, Language, ज़बान


मेरे अधिकाँश लेख मेरे व्यक्तिगत मामलों के बारे में होते हैं तथा मेरी 'डायरी' तक ही सीमित रहते हैं| परन्तु कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें चिल्ला-चिल्ला कर बताने का मन करता है| पता सबको होती हैं, परन्तु सुसुप्त अवस्था में| सिर्फ उन्हें जगाना चाहता हूँ|

पिछले दिनों मेरी अपनी प्रेमिका से इस सन्दर्भ में लडाई हो गयी क्योकि वो किसी भाषा विशेष को महत्त्व देती है, न कि विचारों को| मेरा फ़ारसी के कुछ शब्दों का इस्तेमाल उसे खटक गया और वो रूठ गयी| बाद में अंग्रेजी का कोई गाना सुनाकर उसे मनाया गया|
दस रूपये के नोट पर पन्द्रह भाषाओँ में "दस रूपये"
दरअसल स्थिति पूरे देश की ही ऐसी है| मैंने एक जनाब से पूछा कि "भारतीय संविधान ने अपने शुरूआती चरण में कितनी राष्ट्रीय भाषाओं को मान्यता दी थी?" जवाब मिला "15"| पर जब मैंने National languages की मान्यता पूछी तो वो बताते हैं "एक, और 'We the people..' के मामले में वो हिंदी है|" वाह! राष्ट्रीय भाषा और National languages की संख्याओं में अंतर 14 है, ये मुझे नहीं पता था| दस रुपये के नोट पर देश की 18 कार्यालयी भाषाओँ में "10 रुपये" का अनुवाद लिखा है| अंग्रेजी उनमें से नहीं है| पर बीचों बीच सबसे बड़े शब्दों में जो अनुवाद है वो अंग्रेजी के अलावा और कोई भला कैसे हो सकती है? 1950 में देश की राष्ट्रीय भाषा के चुनाव के लिए कांग्रेस में ही दो दल बन गए- 'हिंदी' तथा 'उर्दू'| देखा जाये तो यूं तो हिंदी तथा उर्दू में अधिक अंतर नहीं है| 1800 के दौर में लाहौर से बगल तक देश में एकता की ऐसी लहर थी कि हिंदी तथा उर्दू में तब तक फ़र्क नज़र नहीं आता था जब तक उन्हें लिख न दिया जाये| वक़्त के साथ जैसे संस्कृत के कुछ शब्दों की अधिकता हिंदी में बढती गयी, वैसे ही फारसी के कुछ लफ्ज़ उर्दू में ज्यादा होते चले गए| पर एक बार फिर ये फ़र्क मिट गया जब मानक हिंदी में 'तत्सम', 'तद्भव' तथा 'विदेशी' शब्द, सभी को सामान प्राथमिकता दी गयी| वैसे भी आज संसार की कोई ऐसी भाषा नहीं जो दूसरी भाषा से अछूती हो| लिहाज़ा जब हिंदी को चुन लिया गया तो भी उर्दू समर्थको को अधिक आपत्ति नहीं हुयी| परन्तु 'so called supporting language ' की कुर्सी पर 'अंग्रेजी' का ही एकाधिकार था और किसी ने चूं भी नहीं की| तय किया गया की लगभग 20 वर्ष पश्चात (यानी आज से 40 साल पहले, 70 के दशक के पूर्वार्ध में) अंग्रेजी से ये पद वापस ले लिया जायेगा| पर फिर ये समय बढ़ा दिया गया और आज मसला पेचीदा है| हिंदी में कोई शपध ले तो तमाचा पड़ता है, पर अंग्रेजी की महिमा बरक़रार है|

1985 के आसपास गुलज़ार ने एक नाटक बनाया "मिर्ज़ा ग़ालिब"| उस के लिए शोध किया था विख्यात लेखक कैफ़ी आज़मी ने| ये नाटक इतना हूबाहू हमें दिखता है कि हम आपस में कितने बँटे हुए हैं| "हिन्दू-मुस्लिम, सिया-सुन्नी, दिल्ली-आगरा" की दीवारें क्या कम थीं जो अब "उर्दू-हिंदी-अंग्रेजी" की दीवारें भी खड़ी कर दी? अंग्रेजी सरकार क्या खूब खेल खेलती थी! बंगाल में अचानक अंग्रेजों ने एक बार उर्दू की कक्षाएं बंद करवा के संस्कृत की कक्षाएं शुरू करवा दी| मुस्लिमो ने इसे अपनी तौहीन समझा| हम ये क्यों भूल जाते हैं कि उर्दू पर 'हरगोपाल तुफ्ता' और 'दयाशंकर नसीब' का उतना ही हक है जितना हिंदी पर 'रसखान' का| 'वारिस' और 'फ़रीक़' ने अगर पंजाबी को अपनाया है तो 'आमिर खुसरो' ने अवधी में भी रस खोला है| बनारस और सोमनाथ के कितने ही लोग पर्यटक बनते हैं? ताज़्ज़ुब है कि इमारतों में हम ताज-महल और लाल-किले के अलावा किसी और का ज़िक्र ही नहीं करते| इमारतों के भी कही मज़हब होते हैं भला? ये सरासर बंटवारा है जिसे फिरंगियों ने शुरू किया और ख़त्म हम आज तलक नहीं कर पाए| मज़हब और ज़बान के नाम पर लोगो को बांटा गया है|

ये लेख न तो मज़हबी है और न ही किसी भाषा का विरोधी या समर्थक| कुछ बातें होती हैं जिनका मज़ा उनकी मूल भाषा में ही आता है, न कि उसके अनुवाद में| सिर्फ इतना ध्यान हो कि विचारों का सम्प्रेषण अधूरा न रहे| और जब बात मन में आ ही जाये तो होने दो बेईख्तियारी और निकाल दो उसे किसी भी भाषा में|

सम्पूर्ण संसार लिंग-भेद, आर्थिक-भेद, क्षेत्रवाद आदि से तो सामान रूप से ही ग्रसित है| पर भाषा के प्रति भारत कुछ विशेष रूप से संवेदनशील है| हमारे बोर्ड को ही लीजिये| English , हिंदी, Sketching , Photography , Photoshop आदि हर क्षेत्र में पारंगत सदस्यों का चुनाव एक परीक्षण के बाद होता है| जहाँ इस वर्ष 15 सदस्य अंग्रेजी के लिए चुने गए, वही मात्र 5 हमारी राष्ट्रीय भाषा को समर्पित थे| और यही समय की मांग है| जब लोग ही अंग्रेज़ी पढ़ना अधिक पसंद करते हैं तो बोर्ड भला फिर क्या करे? इस वर्ष पत्रिका में कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं अन्यथा वक़्त की रेत में तो हिंदी अनुभाग के पृष्ठों की संख्या भी यूँ कम हो रही थी मानो हिंदी मात्र एक औपचारिकता थी|

कुल मिलाकर मुद्दा इतना सा ही है कि साहित्य को उत्कृष्ट बनाने के लिए उसमें योगदान, और योगदान के लिए उसका पूर्ण ज्ञान आवश्यक है| कहीं ऐसा न हो कि हम 'दुआ' लिखते रहें और वो 'दगा' पढ़ते रहें| एक नुकते की गलती भी बड़ी बात बन जाये| आवश्यक ये भी है कि इससे दुसरे माध्यमों का ह्रास न हो| किसी एक भाषा को प्रदान किया गया विशेष महत्त्व दूसरी भाषा के लिए पीड़ा न बन जाये| फिर क्या फर्क पड़ता है कि वह हिंदी है या मराठी या अंग्रेजी? भरी सभा में अगर सब हिंदी समझ सकते हैं फिर भी मेरा सहपाठी यदि मात्र इसलिए सहमा हुआ बैठा है कि उसे अंग्रेजी नहीं आती तो यह सोच बदलनी होगी| वक़्त लग सकता है| पर ये भी सच है की:

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक,
हमने माना की तागाफ्फुल न करोगे लेकिन,
खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक|
-(मिर्ज़ा  ग़ालिब)