Monday, November 22, 2010

What's your religion?

It was 5:30 AM according to IST. and with the grace of the desktop gadgets I have on my Windows7, I was enjoying the Radio FM 100 Islamabad, the capital of Pakistan. To be noted that where the the difference of IST from GMT was +5:30, Pakistan was having UTC+5:00. Hence it was the time of fajr and I could listen this subsection of salah, the Islamic prayer. A person was reciting the prayer and translation was going on side by side. But then a thought did strike me.

The same must have been started just a little before in here, India. Again, even half an hour earlier in Bangladesh. And after 4 hours, the same will also be sung in the western Arab countries like those of Egypt. And one more idea. Just as the clock must have hit four, the Hindu ritual prayers must have also started. The much strict like those on the banks of Ganges in many holy cities. And It happens daily. Have been happening since centuries and will keep on happening until the religion survives. It was also the evening 4:00 in US at the same time. People must be busy there. After 7 or 8 hours, they will fall asleep when we will be at the extreme of our daily routine. And by the time, I am ready for dinner, the fathers of the cathedral church will wake up. Make the people of their religion wake up. Only those having the night-outs share their late night work with the people working around the globe on the other end.

Monday, November 15, 2010

Ashamed of being Indian?

मैं भारतीय हूँ और मैं सदा से इस बात पर गर्व करता आया हूँ| बचपन से ही मुझे गर्व होता था भारत के गौरवशाली इतिहास पर, इसके भौगोलिक परिप्रेक्ष्य पर, इसकी वर्तमान प्रगति की दर पर और भविष्य के प्रति भारत की जागरूकता पर| पर वक्त के साथ मुझे ये महसूस होता गया कि सिर्फ गर्व करना ही सब कुछ नहीं होता| गौरव को बनाये रखने के लिए सतत परिश्रम की भी आवश्यकता होती है| पर आज भारतीय इस बात को भूल गए हैं| "हमारे पूर्वजों ने ये किया, वो किया" - इस तरह की बातों पर सीना चौड़ा करते हैं| पर अभी हम क्या हैं, ये नहीं देखते| किसी ज़माने में भारतीयों ने भारतीयता का परिचय दिया था| पर आज का हर भारतीय सिर्फ कागजी कार्यवाही के लिए ही भारतीय रह गया है ताकि सरकारी नौकरी मिल सके|

Friday, November 5, 2010

तीन दिन: चार शिकवे

शिकवा 1: बाहर का पता नहीं पर हिन्दुस्तान की बसों में स्त्रियों के लिए सीटें आरक्षित होती हैं और उन पर पुरुष का बैठना तब तक वर्जित होता है जब तक कोई भी औरत खड़ी हो| पुणे में ऐसी सीटों पर "स्त्रियांसाठी" लिखा रहता है| मैं बस में सफर कर रहा था और मैंने देखा कि बस का पूरा का पूरा बाँया हिस्सा "स्त्रियांसाठी" से अंकित था| साथ में एक बोर्ड भी लगा था कि यदि किसी पुरुष ने महिला के होते हुए वहाँ बैठने की जुर्रत की तो उसे सौ रूपये से लेकर तीन सौ रूपये तक का जुर्माना हो सकता है| काफी औरतें खड़ी थीं जबकी बहुत से पुरुष उन सीटों पर बैठे थे| और उन औरतों में से किसी ने भी अपने अधिकार के लिए लड़ने की ज़रूरत नहीं समझी|

Sunday, October 31, 2010

किस्मत बनाम मेहनत: आज का दिन गवाह

Exam सुबह नौ बजे शुरू होना था और पौने नौ बजे नींद खुली| आराम से फ्रेश हुआ, बाल गीले किये, कॉलेज की uniform पहनी और परीक्षा स्थल पर सही समय पर पहुँच गया| जाकर अपनी पर्ची उठानी थी| मैं सोच रहा था की querry और trigger के अलावा कुछ भी आ गया तो कर लूँगा पर इन दोनों में से कुछ आ गया तो दिक्कत हो जायेगी| मुझसे आगे नौशाद खड़ा था और वो अपनी पर्ची ले चुका था| मेरी बारी आयी| मेरे सामने लगभग बीस पर्चियां पड़ी थीं| मैंने मन ही मन दो पल तक तो कुछ सोचा| फिर हाथ बढ़ा दिया| पहले सबसे ऊपर वाली पर्ची पर हाथ लगाया| पर अचानक पता नहीं क्या हुआ कि ख़याल आया "बीच का रास्ता हमेशा सही होता है" और सबसे बीच में से एक पर्ची निकाल ली| खोल कर देखा तो वो querry निकली|

Friday, May 7, 2010

तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे

नौनिहाल का एक दृश्य
1967 में 'नौनिहाल' नाम से एक हिंदी फीचर फिल्म बनी| स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरु के निधन पर उस फिल्म में श्रधांजलि स्वरुप एक गाना गाया गया "मेरी आवाज़ सुनो"| गायक रफ़ी साहब और लेखक कैफ़ी आज़मी थे|

"मुझको उम्र भर नफरत सी रही अश्कों से
मेरे ख्वाबों को तुम अश्कों में भिगोते क्यूँ हो
जो मेरी तरहाँ जिया करते हैं कब मरते हैं

Wednesday, May 5, 2010

ऋचा


परसों रात 3 बजे की बात है| मेरे दोनों रूमी सो चुके थे| मैं पढ़ रहा था| उन दोनों की अपेक्षा मेरी हालत कुछ ज्यादा ही खराब है| तो ज़ाहिर सी बात है की मुझे पढना भी ज्यादा ही पड़ेगा| कुछ समझ नहीं आ रहा था तो सोचा की थोड़ी देर बाहर घूम आऊँ| अक्सर रात के इस वक़्त हॉस्टल से बाहर नहीं घूमा जाता क्योंकि इजाज़त नहीं होती| पर मेन गेट खुला था तो मैं निकल गया| चलते चलते फुटबाल के मैदान में चला गया और बेंच पर बैठ कर आसमान की तरफ देखने लगा| तारों को देख कर दिमाग में सीधा ख़याल यही गया कि इन्हीं तारों को देख कर ये कैसे पता लगा सकता हूँ कि इस वक़्त मैं भूमध्य रेखा से 18 डिग्री दूर हूँ?
क्योंकि ये तारे तो एक ही रात में लगभग आधे चक्र की परिक्रमा लगा लेते हैं| कुछ दिन पहले ही तो इसी तरह कि एक पहेली सुलझाई थी मैंने एक किताब में| अतः, इनका स्थान तो समय पर निर्भर करता है| एक ही बिंदु पर स्थगित होते तो आसान होता| फिर ध्रुव तारे का ख़याल आया| फिर वक़्त की पहचान के लिए नक्षत्रों कि याद आई| सोचता रहा| सोचता रहा और प्राचीन खगोल विद्वानों को सराहता रहा| ठंडी ठंडी बयार चल रही थी| पत्ते आवाज़ कर रहे थे और धीरे धीरे मुझे भी ठण्ड लगने लगी| इससे मेरे ख़याल टूटे और मैं धरातल पे आ गया| फिर सोचा कि "नितिन, तू ये क्या कर रहा है? शायद यही तेरी असफलता की वजह है कि तू भटकता है| सब यही कहते हैं| अब तुझे आने वाली परीक्षा के बारे में सोचना चाहिए और तू भूगोल से प्रेम कर रहा है? मूर्ख है क्या? यहाँ अपने घर से इतनी दूर किसलिए आया है? पढने के लिए ही न?"

बस इस बात का सोचना था कि फिर खो गया| "मैं घर से कितना दूर आया हूँ? लगभग आधा भारत? यानी 3000 कि.मी. का आधा| अर्थात लगभग 1500 क.मी.| इसका अर्थ ये हुआ कि मैं लगभग 10 डिग्री अक्षांश दूर हूँ| इसका मतलब दिल्ली 28 डिग्री पर स्थित है|" फिर गलत राह पकड़ गया| जाने मुझे क्या हो जाता है| चाँद को देखा| हॉस्टल के ठीक ऊपर चमक रहा था| आधा, पर दीप्तिमान| साधारणतः उसे देख कर प्रेम, शीतलता आदि का आभास होता है| पर मेरे लिए उस वक़्त वो सिर्फ एक ब्रह्मांडीय पिंड था|

कुछ देर बाद मैं वापस रूम में आ गया| ठण्ड तो लगी ही थी| स्वेट शर्ट पहनी और फिर निकल पड़ा| इस बार हाथ में लैप्पी था और फिर वही बेंच| सोचा था कि वहां थोड़ी देर बैठकर DELD के lectures देखूंगा| पर जाने क्या हुआ कि बस यूँ ही बैठ गया| सोचने लगा कुछ और| और इस बार थोड़े romantic विचार आये| अब विडम्बना देखिये कि थोड़ी ही देर पहले समाँ प्यार का था पर मैं professional | और अब माहौल professional बना कर आया था पर दिमाग में रोमांस चल निकला| लगता है यही प्रवृत्ति मुझे मरवाएगी इक दिन| सोचने लगा कि क्यों मेरे सब दोस्त मुझे बार बार ये कहते हैं कि मैं खूब fight मारता हूँ? जबकि सच ये है कि AIT में आने के बाद एक बार तो गलती हुयी है जिसे मैं दिल से मानता हूँ| पर दोबारा इतिहास दोहराए ऐसा मैं मौका भी नहीं देने वाला किसी को| ऋतंभरा के साथ घटी वो घटना मुझे ज़िन्दगी भर कचोटती रहेगी, ये सच है| पर मेरी उस एक गलती ने मुझे कितना कुछ सिखाया है, ये मैं ही जनता हूँ| हाँ! अमनज्योति के अलवा भी कुछ ऐसे चेहरे हैं जो मुझे लुभाते हैं, दिल को छूते हैं| पर वो सब क्षणिक हैं| प्रेम नहीं है| आकर्षण मात्र भी नहीं है| कुछ और ही है| प्रिया एक ऐसी लड़की है जिसके प्रति मेरा अनजाना सा आकर्षण हुआ था| पर उसकी भी वजह सिर्फ यही थी कि प्रिया का चेहरा, उसके नैन नक्ष, उसकी बातें, उसका मुस्कुराना, सब कुछ जाने कैसे, पर मेरी अमन से काफी हद तक मिलता जुलता है| और जब दो साल तक मैंने अमन को एक नज़र भी नहीं देखा है तो यहाँ वो प्यास बुझती है| ये लगाव भी प्रिया के लिए नहीं, सिर्फ उसके चेहरे के लिए है| शायद उसने भी ये महसूस किया होगा कि मैं उसे देखता रहता हूँ पर कभी कहा नहीं| और पता मुझे भी था कि उसने महसूस कर लिया है| पर करता भी तो क्या? राह चलते एक नज़र भी पड़ जाती तो अटक ही जाती मानो| मन ही मन जानता कि उसने देख लिया है, पर दिल कहता कि बस एक पल और, एक पल और| मैं चलता रहता और गर्दन घूमती रहती जब तक नांदल हाथ पकड़ झटक नहीं देता| फिर जब मुझे लगा कि उसे परेशानी होने लगी है तो एक दिन उस को बुला कर अपनी हालत बता दी| उसे निश्चिन्त कर दिया कि मेरे दिल में उसके लिए ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए वो परेशान हो| आखिर उसे तीन साल मेरी junior कि तरह गुज़ारने हैं| तो वातावरण अनुकूल होना चाहिए| ज़ाहिर है कि किसी भी लड़की को परेशानी हो सकती है| मुझे नहीं लगता कि मैं भी गलत था, पर यक़ीनन अगर कोई गलत था तो वो भी मैं ही था| और अब उसकी तरफ नज़र जाती भी है तो मैं हिचकिचाता नहीं| धड़कन नहीं बढती| आँखें नहीं शरमाती|

मेरा लक्ष्य क्या है ये मुझे तभी पता चला जब कॉलेज में आ चुका था| Medical stream के लिए मेरी तमन्ना, biology के लिए मेरा प्यार मैंने तब जाना जब मैं engineering के चार साल के चक्रव्यूह में फंस चुका था| हफ्ते भर पहले ही घर फ़ोन किया कि मुझे सिर्फ इस साल एक बार MBBS के लिए coaching दिलवा दो| फ्रेशेर्स में बिना कोअचिंग के CBSE pre cleared और mains में close ranking , दोनों ही मेरे लिए दुखदायी थी| अगर pre ही clear न होता तो कम से कम ये मान कर तो बैठ जाता कि मेरा तो हो ही नहीं सकता| और जब mains भी नज़दीक से रह गया तो दिल टूट गया| हर साल छुट्टियों के बाद जब मैं वापस कॉलेज आता हूँ तो बैग में PMT की तयारी की किताबें भर लेता हूँ, पर पापा वापस निकलवा देते हैं| इस बार चोरी से रखनी चाही पर पापा ने पूरे बैग की छान बीन कर के सारी किताबें निकलवा दीं| शुरू शुरू में जो ले आया था बस वही हैं वरना bio की किताबों की शकल देखने को तरस गया हूँ| इस साल के CBSE -PMT के question paper download मार कर solve करने की कोशिश की| दो साल बाद भी bio के 100 सवालों में से 68 उस रात भी ठीक किये, 9 गलत थे और बाकी सब unattempted | यानी negetive मिलाकर भी 300 में से 195| साल दर साल का कट-ऑफ जब देखता हूँ तो साफ़ है कि इस साल भी मेरी pre cleared थी| बिना तय्यारी, बिना माहौल और बिना वक़्त| पर दो अनुभव एकदम नए भी थे| एक, कि किसी ज़माने में मैं जहाँ पूरी bio 30 -40 मिनट के अंदर ही अंदर ख़त्म कर देता था, वहीँ उस रात मैंने 2 घंटे ले लिए थे| थोडा दिमाग पर जोर पड़ा था| पर में भी कहाँ गलती थी| दो साल हो गए थे| याददाश्त पर धूल तो जमी ही थी| दूसरा अनुभव एक अलौकिक सुख का था जो मैंने फिर से biological world में घुस कर पाया| मेरी bio के लिए दीवानगी पर गर्व भी होता है, और दुःख भी| पर सबसे बड़ा अफ़सोस तो ये है कि "मेरी मंजिल तो MBBS ही थी" जानने में इतना वक़्त लग गया| अब सोचता हूँ कि जब ACDS में AIR 72 थी, तभी अगर उसमें ले लेता तो आज cadavers के बीच में तो होता| हर तरफ cadaver ही cadaver| फ़ोन पर मैं रो पड़ा| दीदी ने समझाया कि अभी अपने परिवार के हालात ऐसे नहीं कि मेरी coaching का खर्चा उठा सकें| दीदी की MBBS का खर्चा, मेरा AIT में खर्चा और घर में पापा का खर्चा साल में पांच लाख से ऊपर जाता है| जबकि आमदनी सालाना 3 लाख से भी कम| यानी हर साल 2 लाख का क़र्ज़| और ऐसे में मेरा coaching का खर्च पापा वहन नहीं कर सकते| मुझे वादा किया कि एक बार मैं इंजीनियरिंग पूरी कर लूं तो उसके बाद मैं जो चाहूं, कर लूं|
यहाँ मैं दोस्तों कि गर्दन पकड़ पकड़ के बोलता हूँ कि "इस तरफ से जाने वाली ये नली carotid artery है, ये hyoid bone है जिसके दो हिस्से हैं, upper cornu and lower cornu ", शरीर के बाकी हिस्से छेड़ छेड़ कर बताता हूँ कि यहाँ foramen magnum होता है, यहाँ foramen ovale होता है, ये carpals 8 और tarsals 7 क्यों होती हैं, lumbar , sacral , coccygeal , और न जाने क्या क्या? खाना खाता हूँ तो कटे हुए खीरे को देख कर placentation याद आती हैं| राह चलते नीम के पेड़ देख कर दोस्तों को बताता हूँ कि इसे azadirachta indica कहते हैं| जीव विज्ञान मेरे खून में बस गया है| इसे चाहकर भी मैं भुला नहीं सकता|
कुछ दिन पहले मैंने Leonardo da Vinci पर बनी एक documentry डाउनलोड की| उसे देख कर मज़ा आ गया| मैं 6th class से Leonardo का दीवाना हूँ| उस वक़्त मैंने एक किताब में बस ये पढ़ा था कि वो एक महान philosopher था| और उसके interest के fields पढ़ कर मैं आश्चर्यचकित था| Paintings , sketching , anatomy , engineering , aerodynamics और न जाने क्या-क्या| और फिर मेरी हुयी नांदल से बहस| मैं जिद लगाये बैठा था कि Leonardo इस पृथ्वी पर पैदा होने वाला सबसे महान genius था| और नांदल Newton और Einstein को कह रहा था| मैंने निश्चय किया कि इन्टरनेट पर चेक करूँगा और मानक होगा IQ level | ये मैंने खुद के लिए किया| नांदल से बहस ख़त्म हो चुकी थी| और कुछ reliable websites पर check किया तो results मिले: Newton 196 , Leonardo 192 , Einstein 167 | आमतौर पर 100 के IQ को normal , 110 को above avarage और 120 को super intelligent माना जाता है| उनकी अ

Friday, April 2, 2010

What the hell !!!

I went up straight to my room and while opening the door, I saw Vinay. It was the first time when I used this statement describing my situation to anyone. Here I go...
"I guess, I am fucked now"
And Mor laughed out loud. He asked the good name of that personality who fucked me up, and my sober reply was "the entire mag-board" with a smile on my face. And it was just this statement which boosted up his laugh as well as Nehra's. I entered the room and they followed me back saying "you had the same situation last year also when you used to come back to NBH late at night and lie on the bed as if the ass is paining".

Thursday, March 25, 2010

दर्द है, पर करूँ क्या?

इस साल के magazine बोर्ड से मुझे खास नाराज़गी है| आज FEs से पिछले कुछ सालों की magazines लेने के लिए क्या गया की शिकायतों का अम्बार फूट पड़ा| हिंदी के प्रति जितनी लालसा पढने वाले रखते हैं, उससे कहीं ज्यादा बेरुखी बोर्ड उसे छपवाने में रखता है, और नाम देता है 'बेबसी' का| सिर्फ कुछ शब्दों का हेर-फेर है पर असल बात ये है की जो इंसान स्वयं जिस क्षेत्र में पारंगत नहीं है, उसे उसकी एहमियत का एहसास नहीं होता| मेरे juniors ने आज मुझसे कह ही डाला कि 'सर, जब हम हिंदी वालों की ज़रूरत और इज्ज़त ही नहीं है तो हम हैं क्यों? क्यों कर हमें बोर्ड का सदस्य बनाया?' और मेरे पास सिर्फ इतना जवाब था कि यही सबसे बड़ी बात है की हम उस के सदस्य हैं जिसकी मांग ज्यादा है पर योगदान देने वाले कम| इसे 'profit of being from a minoriti group ' कहते हैं|

भाषा, Language, ज़बान


मेरे अधिकाँश लेख मेरे व्यक्तिगत मामलों के बारे में होते हैं तथा मेरी 'डायरी' तक ही सीमित रहते हैं| परन्तु कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें चिल्ला-चिल्ला कर बताने का मन करता है| पता सबको होती हैं, परन्तु सुसुप्त अवस्था में| सिर्फ उन्हें जगाना चाहता हूँ|

पिछले दिनों मेरी अपनी प्रेमिका से इस सन्दर्भ में लडाई हो गयी क्योकि वो किसी भाषा विशेष को महत्त्व देती है, न कि विचारों को| मेरा फ़ारसी के कुछ शब्दों का इस्तेमाल उसे खटक गया और वो रूठ गयी| बाद में अंग्रेजी का कोई गाना सुनाकर उसे मनाया गया|
दस रूपये के नोट पर पन्द्रह भाषाओँ में "दस रूपये"
दरअसल स्थिति पूरे देश की ही ऐसी है| मैंने एक जनाब से पूछा कि "भारतीय संविधान ने अपने शुरूआती चरण में कितनी राष्ट्रीय भाषाओं को मान्यता दी थी?" जवाब मिला "15"| पर जब मैंने National languages की मान्यता पूछी तो वो बताते हैं "एक, और 'We the people..' के मामले में वो हिंदी है|" वाह! राष्ट्रीय भाषा और National languages की संख्याओं में अंतर 14 है, ये मुझे नहीं पता था| दस रुपये के नोट पर देश की 18 कार्यालयी भाषाओँ में "10 रुपये" का अनुवाद लिखा है| अंग्रेजी उनमें से नहीं है| पर बीचों बीच सबसे बड़े शब्दों में जो अनुवाद है वो अंग्रेजी के अलावा और कोई भला कैसे हो सकती है? 1950 में देश की राष्ट्रीय भाषा के चुनाव के लिए कांग्रेस में ही दो दल बन गए- 'हिंदी' तथा 'उर्दू'| देखा जाये तो यूं तो हिंदी तथा उर्दू में अधिक अंतर नहीं है| 1800 के दौर में लाहौर से बगल तक देश में एकता की ऐसी लहर थी कि हिंदी तथा उर्दू में तब तक फ़र्क नज़र नहीं आता था जब तक उन्हें लिख न दिया जाये| वक़्त के साथ जैसे संस्कृत के कुछ शब्दों की अधिकता हिंदी में बढती गयी, वैसे ही फारसी के कुछ लफ्ज़ उर्दू में ज्यादा होते चले गए| पर एक बार फिर ये फ़र्क मिट गया जब मानक हिंदी में 'तत्सम', 'तद्भव' तथा 'विदेशी' शब्द, सभी को सामान प्राथमिकता दी गयी| वैसे भी आज संसार की कोई ऐसी भाषा नहीं जो दूसरी भाषा से अछूती हो| लिहाज़ा जब हिंदी को चुन लिया गया तो भी उर्दू समर्थको को अधिक आपत्ति नहीं हुयी| परन्तु 'so called supporting language ' की कुर्सी पर 'अंग्रेजी' का ही एकाधिकार था और किसी ने चूं भी नहीं की| तय किया गया की लगभग 20 वर्ष पश्चात (यानी आज से 40 साल पहले, 70 के दशक के पूर्वार्ध में) अंग्रेजी से ये पद वापस ले लिया जायेगा| पर फिर ये समय बढ़ा दिया गया और आज मसला पेचीदा है| हिंदी में कोई शपध ले तो तमाचा पड़ता है, पर अंग्रेजी की महिमा बरक़रार है|

1985 के आसपास गुलज़ार ने एक नाटक बनाया "मिर्ज़ा ग़ालिब"| उस के लिए शोध किया था विख्यात लेखक कैफ़ी आज़मी ने| ये नाटक इतना हूबाहू हमें दिखता है कि हम आपस में कितने बँटे हुए हैं| "हिन्दू-मुस्लिम, सिया-सुन्नी, दिल्ली-आगरा" की दीवारें क्या कम थीं जो अब "उर्दू-हिंदी-अंग्रेजी" की दीवारें भी खड़ी कर दी? अंग्रेजी सरकार क्या खूब खेल खेलती थी! बंगाल में अचानक अंग्रेजों ने एक बार उर्दू की कक्षाएं बंद करवा के संस्कृत की कक्षाएं शुरू करवा दी| मुस्लिमो ने इसे अपनी तौहीन समझा| हम ये क्यों भूल जाते हैं कि उर्दू पर 'हरगोपाल तुफ्ता' और 'दयाशंकर नसीब' का उतना ही हक है जितना हिंदी पर 'रसखान' का| 'वारिस' और 'फ़रीक़' ने अगर पंजाबी को अपनाया है तो 'आमिर खुसरो' ने अवधी में भी रस खोला है| बनारस और सोमनाथ के कितने ही लोग पर्यटक बनते हैं? ताज़्ज़ुब है कि इमारतों में हम ताज-महल और लाल-किले के अलावा किसी और का ज़िक्र ही नहीं करते| इमारतों के भी कही मज़हब होते हैं भला? ये सरासर बंटवारा है जिसे फिरंगियों ने शुरू किया और ख़त्म हम आज तलक नहीं कर पाए| मज़हब और ज़बान के नाम पर लोगो को बांटा गया है|

ये लेख न तो मज़हबी है और न ही किसी भाषा का विरोधी या समर्थक| कुछ बातें होती हैं जिनका मज़ा उनकी मूल भाषा में ही आता है, न कि उसके अनुवाद में| सिर्फ इतना ध्यान हो कि विचारों का सम्प्रेषण अधूरा न रहे| और जब बात मन में आ ही जाये तो होने दो बेईख्तियारी और निकाल दो उसे किसी भी भाषा में|

सम्पूर्ण संसार लिंग-भेद, आर्थिक-भेद, क्षेत्रवाद आदि से तो सामान रूप से ही ग्रसित है| पर भाषा के प्रति भारत कुछ विशेष रूप से संवेदनशील है| हमारे बोर्ड को ही लीजिये| English , हिंदी, Sketching , Photography , Photoshop आदि हर क्षेत्र में पारंगत सदस्यों का चुनाव एक परीक्षण के बाद होता है| जहाँ इस वर्ष 15 सदस्य अंग्रेजी के लिए चुने गए, वही मात्र 5 हमारी राष्ट्रीय भाषा को समर्पित थे| और यही समय की मांग है| जब लोग ही अंग्रेज़ी पढ़ना अधिक पसंद करते हैं तो बोर्ड भला फिर क्या करे? इस वर्ष पत्रिका में कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं अन्यथा वक़्त की रेत में तो हिंदी अनुभाग के पृष्ठों की संख्या भी यूँ कम हो रही थी मानो हिंदी मात्र एक औपचारिकता थी|

कुल मिलाकर मुद्दा इतना सा ही है कि साहित्य को उत्कृष्ट बनाने के लिए उसमें योगदान, और योगदान के लिए उसका पूर्ण ज्ञान आवश्यक है| कहीं ऐसा न हो कि हम 'दुआ' लिखते रहें और वो 'दगा' पढ़ते रहें| एक नुकते की गलती भी बड़ी बात बन जाये| आवश्यक ये भी है कि इससे दुसरे माध्यमों का ह्रास न हो| किसी एक भाषा को प्रदान किया गया विशेष महत्त्व दूसरी भाषा के लिए पीड़ा न बन जाये| फिर क्या फर्क पड़ता है कि वह हिंदी है या मराठी या अंग्रेजी? भरी सभा में अगर सब हिंदी समझ सकते हैं फिर भी मेरा सहपाठी यदि मात्र इसलिए सहमा हुआ बैठा है कि उसे अंग्रेजी नहीं आती तो यह सोच बदलनी होगी| वक़्त लग सकता है| पर ये भी सच है की:

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक,
हमने माना की तागाफ्फुल न करोगे लेकिन,
खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक|
-(मिर्ज़ा  ग़ालिब)